‘असली’ मुठभेड़ों में भारी पड़ते हैं अपराधी
खराब कानून व्यवस्था को मुद्दा बना कर सत्ता के शिखर पर पहुंची बीजेपी सरकार के मुखिया योगी आदित्यनाथ प्रदेश के अपराधियों को चुनौती देते हुए कहा था कि या तो वे सुधर जाएं या फिर उत्तर प्रदेश छोड़ कर चले जाए। इसके बाद एनकाउंटर का दौर शुरू हुआ।
पश्चिमी यूपी से लेकर पूर्वांचल तक यूपी पुलिस ने हजारों एनकाउंटर किए और अपराधियों को मौत के घाट उतारे दिए। बीच में ऐसी भी खबरें आई कि कई अपराधियों ने एनकाउंटर से डर कर सरेंडर कर दिया है। वहीं इस दौरान यूपी पुलिस पर फेक एनकाउंटर के भी आरोप लगे।
हालांकि योगी सरकार में जिन पुलिस मुठभेड़ों को प्रचारित कर कानून का इकबाल कायम होने का दावा किया जा रहा था। वे असल में उतने असरकारी नहीं दिख रहे हैं। विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधी ने पुलिस पर फायरिंग करने से पहले एक बार भी नहीं सोचा।
जानकारों का कहना है कि 25 हजार का इनामी बदमाश सीओ समेत आठ पुलिस वालों को मार डाले, यह बात ताज्जुब में डाल देती है। इस घटना की वजह को तुरंत समझ पाना वाकई मुश्किल है। जुर्म की दुनिया में हार्डकोर अपराधियों के लिए पुलिस वाले की हत्या करना दरबार में आए दूत को मारने जैसा अनैतिक अपराध माना जाता है। बड़े से बड़े माफिया, ऑर्गनाइज्ड गिरोह और बाहुबली भरसक कोशिश करते हैं कि पुलिस वाला उनके हाथों न मारा जाए।
दूसरी ओर पिछले तीन साल में हजारों एनकाउंट कर चुकी यूपी पुलिस से कानपुर में हुई बड़ी चूक भी सवालों के घेरे में है। आखिर बिना तैयारी के पुलिस विकास दुबे को पकड़ने क्यों गई। किन वजहों से विकास दुबे यूपी पुलिस पर भारी पड़ा।
20 मार्च 2017 से बीजेपी सरकार के सत्ता संभालने के बाद से दो जुलाई तक प्रदेश में 6144 पुलिस मुठभेड़ें हो चुकी हैं। जिनमें 113 अपराधी मारे गए और 2257 गंभीर रूप से जख्मी हुए। इसके बावजूद पुलिस पर हमले और सनसनीखेज अपराधों का सिलसिला जारी है। विकास दुबे और उसके गैंग के साथ हुई मुठभेड़ में आठ पुलिसवालों समेत इस सरकार में अब तक 13 पुलिसवाले शहीद हो चुके हैं। जबकि 881 पुलिसवाले बदमाशों की फायरिंग में जख्मी हुए हैं।
पुलिस की मुठभेड़ें अक्सर सवालों के घेरे में रहती हैं। खासतौर से मुठभेड़ों की एक सी कहानी के चलते। इसलिए कहा जाता है जब वाकई मुठभेड़ होती है तो उसमें अपराधी ही भारी पड़ते हैं और हर बार पुलिस के जवानों और अधिकारियों की शहादत होती है।
राजापुर के जमौली गांव में एक घर मे छिपे अकेले डकैत घनश्याम केवट ने तीन दिन तक पुलिस को नाको चने चबवाए थे। करीब एक हजार पुलिस, पीएसी, एसओजी और एसटीएफ से घिरे घनश्याम केवट की गोलियों से दो पीएसी जवान, एक एसओजी जवान और एक एसटीएफ जवान शहीद हो गए थे।
इसके अलावा बांदा के तत्कालीन डीआईजी, पीएसी के आईजी सहित सात लोग उसकी गोलियों से जख्मी हुए थे। तीसरे दिन पुलिस घनश्याम को तब मार पाई, जब वह घर से निकलकर गांव बाहर भागा।
23 जुलाई 2007 को दस्यु सरगना ठोकिया ने बघोलन तिराहे में घेरकर एसटीएफ जवानो की दो गाडियों पर अधाधुंध गोलियां बरसाई थीं। इस हमले मे सात लोग शहीद हो गए थे और इतने ही जख्मी। इसके पहले भी ठोकिया ने बौनापुरवा गांव मे दो सिपाहियों को मौत के घाट उतारकर उनकी राइफलें लूट ली थी।
ठीक इसी तरह कालींजर थाना क्षेत्र के नोखे का पुरवा मे मुठभेड के दौरान कोतवाली के सिपाही बृजकांत मिश्रा शहीद हो गए थे। करीब तीन साल पहले चित्रकूट के बिलहरी गांव मे डकैत गौरी यादव ने दिल्ली के दरोगा भगवान शर्मा को मौत के घाट उतार दिया था। दो साल पहले दो जुलाई 2015 को बलखडिया से मुठभेड़ मे भी दो सिपाही डकैतो की गोलियों से बुरी तरह जख्मी हो गए थे।
बबुली कोल मुठभेड़
इस सरकार के कार्यकाल में डकैत बबुली कोल से मुठभेड़ में एसआई जय प्रकाश सिंह शहीद हो गए थे। जबकि तत्कालीन एसओ बहिलपुरवा वीरेंद्र त्रिपाठी बुरी तरह से जख्मी हो गए थे। संभल में पेशी से लौट रहे बंदियों ने दो सिपाहियों की हत्या कर दी थी और भाग निकले थे। हालांकि बाद में पुलिस ने मुठभेड़ में उन सभी को मार गिराया था।
खाकी पर हमले
15 जून 2014 फिरोजाबाद के रामगढ़ में लुटेरों ने दो सिपाहियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी।
पांच जून 2013 सहारनपुर में बदमाशों के हमले में सीओ पीठ दिखाकर भाग गए थे और हमराही राहुल ढाका बदमाशों की गोली से शहीद हो गए थे।
16 अक्टूबर 2012 अलीगढ के बरला थाने में प्रभारी एसओ ओमवीर की बदमाशों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी।
30 मई 2013 मथुरा में अपराधी को गिरफ्तार करने गई आगरा एसओजी टीम पर बदमाशों ने हमला कर दिया था, हमले में सिपाही सतीश परिहार शहीद हुए थे।
दो नवंबर 2014 हरदोई के लोनार में दबिश देने गए एसओ बेहटा गोकुल पर अपराधी की गोली से जख्मी।