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मायावती के मजबूत रहते नहीं हो सकती कांग्रेस की वापसी
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स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष की ओर से सरकार की आलोचना आम बात है, लेकिन विपक्ष के दल जब एक-दूसरे की आलोचना करने लगें, तो मामला थोड़ा गंभीर हो जाता है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में आजकल कुछ ऐसा ही देखना को मिल रहा है. बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो कोरोना के इस संकटकाल में सरकार चला रही बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस को घेरने में लगी हुई हैं.

चाहे कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के उत्तर प्रदेश में 100 बसें भेजने का मामला हो या कोटा से उत्तर प्रदेश के छात्रों को भेजने का मामला. माया लगतार कांग्रेस पर हमलावर हैं. यहां तक कि देश में करोड़ों मजदूरों के अलग-अलग हिस्सों से पलायन के मामले में भी मायावती केन्द्र की बीजेपी सरकार से ज्यादा कांग्रेस को दोषी मानती हैं.

क्या राजस्थान के कारण नाराज हैं मायावती

मायावती की कांग्रेस से नाराजगी को देखें, तो राजस्थान से उसका गहरा नाता है. मायावती पहली बार कोटा से उत्तर प्रदेश के अलग-अलग शहरों के छात्रों को भेजने के मामले पर कांग्रेस के विरोध में आईं. दूसरी बार प्रियंका के उत्तर प्रदेश में एक हजार बसें भेजने पर भी ज्यादातर बसें राजस्थान से ही आईं थी. यह बात सही भी है कि पिछले दिनों कांग्रेस ने जिस तरह का व्यवहार मायावती के साथ राजस्थान में किया है, उसके बाद मायावती का नाराज होना लाजमी है. जिस बसपा के समर्थन से राजस्थान में कांग्रेस ने सरकार बनाई और कुछ दिनों बाद उसी बसपा के सारे विधायकों का अशोक गहलोत ने अपनी पार्टी में विलय करा लिया.

उसके बाद से ही लगने लगा था कि आने वाले समय में मायावती और कांग्रेस के रिश्ते ठीक नहीं रहने वाले हैं लेकिन क्या सिर्फ इस मामले को लेकर मायावती और कांग्रेस में इतनी तल्खी हो गई है, क्योंकि बीएसपी के विधायकों का राजस्थान और मध्य प्रदेश में सत्ता दल के साथ विलय का तो इतिहास ही रहा है.

ये है कांग्रेस पर हमलावर होने की असली वजह!

कोरोना संकट के इस दौर में मायावती हर छोटे-बड़े मामले पर सीधे तौर पर कांग्रेस पर हमलावर हो जाती हैं. यहां तक कि कई बार ऐसा भी दिखता है जब मायावती को सरकार की आलोचना करनी चाहिए, तो भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े होकर कांग्रेस की आलोचना करती दिखती हैं. साफ है दूरी सिर्फ राजस्थान के मामले को लेकर नहीं है. इस दूरी के कारण और भी हैं.

दरअसल कांग्रेस और बीएसपी की इस कड़वाहट को समझने के लिए हमें उत्तर प्रदेश की राजनीति के उस दौर में जाना पड़ेगा, जहां से कांग्रेस कमजोर होना शुरू हुई थी. वो दशक 90 का, जब वीपी सिंह की सरकार ने देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू कर दी और देश में ओबीसी के नाम से एक नए वोट बैंक का उदय हुआ. ये वोट बैंक अपने उदय के साथ ही कांग्रेस के खिलाफ हो गया और उत्तर भारत में पहले जनता दल और बाद में जनता दल से टूटकर बने अलग-अलग दलों के साथ रहा.

इसके बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी. कांग्रेस को दूसरा सबसे बड़ा झटका बीएसपी के उदय के साथ लगा. कांग्रेस के सबसे मजबूत वोट बैंक दलितों ने मायावती के उदय के साथ ही देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का साथ छोड़ दिया. उसके बाद से तो कांग्रेस उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी खड़ी ही नहीं हो पाई. बहुजन समाज पार्टी ने जब उत्तर प्रदेश में 2007 में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई, तो कांग्रेस के रहे-सहे वोट बैंक ब्राह्मणों को भी अपने पाले में कर लिया.

मायावती के मजबूत होने के साथ ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कमजोर होती चली गई. ऐसे में यदि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में वापसी करती है, तो उसका सबसे पहला फोकस दलित और ब्राह्मण वोट बैंक होगा. हालांकि अल्पसंख्यक बैंक भी धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के हाथ से चला गया है, लेकिन पिछले दो चुनावों को देखें तो कांग्रेस इस वोट बैंक से कुछ हिस्सा अपने पास वापस लाने में कामयाब होती दिख रही है.

राष्ट्रीय राजनीति के अलग-अलग कारणों के नाते अल्पसंख्यक वोट बैंक धीरे-धीरे कांग्रेस की ओर लौट रहा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में अभी भी दलित और ब्राह्मण वोट बैंक कांग्रेस की ओर लौटता नहीं दिख रहा है. ब्राह्मण वोट बैंक धीरे-धीरे भारतीय जनता पार्टी में शिफ्ट हो गया है, लेकिन अभी पिछले चुनाव के रिकॉर्ड को देखें, तो दलित वोट बैंक पर मायावती के एकाधिकार से इनकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे में कांग्रेस को भी पता है कि वर्तमान परिवेश में बिना दलित वोट बैंक को अपने साथ लाए भारतीय जनता पार्टी को कड़ी चुनौती नहीं जा सकती है.

इसीलिए जब भी उत्तर प्रदेश में दलितों का कोई मामला होता है, तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा सबसे पहले पहुंचती हैं. और मायावती की चिंता का कारण भी यही है. बीएसपी सुप्रीमो मायावती को पता है कि अगर अपने दलित वोट बैंक को बचाए रखना है तो उन्हें साबित करना है दलितों की सबसे बड़ी हितैषी वही हैं. इसीलिए जब भी दलितों के मामले में सरकार की आलोचना करने में कांग्रेस आगे निकल जाती है तो मायावती सरकार की आलोचना की जगह कांग्रेस पर हमलावर हो जाती हैं.

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